सुदक्षिण काम्बोज महाभारत के अनुसार काम्बोज देश का राजा था। सुदक्षिण काम्बोज महाभारत में वर्णित काम्बोज देश के तीसरा राजा थे तथा काम्बोजराज चन्द्रवर्मा के बेटे थे। पूरे महाभारत महाकाव्य में सुदक्षिण काम्बोज को सभी राजाओं और युग के सबसे शानदार योद्धाओं में बहुत सुन्दर, महारथी व सबसे वीर माना है। वह महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से पांडवों के विरुद्ध लड़ा था। उसकी बहन भानुमति का विवाह दुर्योधन से हुआ था। वह चौदहवें दिन के युद्ध में पांडुपुत्र अर्जुन द्वारा मारा गया व वीरगति पाई थी।
द्रौपदी के स्वयंवर में सुदक्षिण काम्बोज आये थे
महाकाव्य साक्ष्य के अनुसार, सुदक्षिण काम्बोज ने पाञ्चाल की राजकुमारी द्रौपदी के स्वयंवर में भाग लिया था। महाभारत के प्रथम खण्ड में धृष्टद्युम्न अपनी बहन द्रौपदी को उसके स्वयंवर में पधारे हुये राजा तथा राजकुमारों के नाम ज्ञात करवाता है। इन सभी नामों में आपको पाण्डवों के नाम नहीं मिलेंगे क्योंकि उस समय वो सभी से छिपकर क्षत्रियों का भाँति ना रहकर ब्राह्मण वेष धारण करके रहते थे। केवल श्री कृष्ण ही जानते थे कि पाण्डव भी उस सभागार में उपस्थित थे। इसी लिये धृष्टद्युम्न उनको ना पहचान सकने के कारण उनका नाम द्रौपदी को नहीं बताता।
धृष्टद्युम्न उवाच||
दुर्योधनो दुर्विषहो दुर्मुखो दुष्प्रधर्षणः |
विविंशतिर्विकर्णश्च सहो दुःशासनः समः ||१||
युयुत्सुर्वातवेगश्च भीमवेगधरस्तथा |
उग्रायुधो बलाकी च कनकायुर्विरोचनः ||२||
सुकुण्डलश्चित्रसेनः सुवर्चाः कनकध्वजः |
नन्दको बाहुशाली च कुण्डजो विकटस्तथा ||३||
एते चान्ये च बहवो धार्तराष्ट्रा महाबलाः |
कर्णेन सहिता वीरास्त्वदर्थं समुपागताः ||४||
शतसङ्ख्या महात्मानः प्रथिताः क्षत्रियर्षभाः ||४||
शकुनिश्च बलश्चैव वृषकोऽथ बृहद्बलः |
एते गान्धारराजस्य सुताः सर्वे समागताः ||५||
अश्वत्थामा च भोजश्च सर्वशस्त्रभृतां वरौ |
समवेतौ महात्मानौ त्वदर्थे समलङ्कृतौ ||६||
बृहन्तो मणिमांश्चैव दण्डधारश्च वीर्यवान् |
सहदेवो जयत्सेनो मेघसन्धिश्च मागधः ||७||
विराटः सह पुत्राभ्यां शङ्खेनैवोत्तरेण च |
वार्धक्षेमिः सुवर्चाश्च सेनाबिन्दुश्च पार्थिवः ||८||
अभिभूः सह पुत्रेण सुदाम्ना च सुवर्चसा |
सुमित्रः सुकुमारश्च वृकः सत्यधृतिस्तथा ||९||
सूर्यध्वजो रोचमानो नीलश्चित्रायुधस्तथा |
अंशुमांश्चेकितानश्च श्रेणिमांश्च महाबलः ||१०||
समुद्रसेनपुत्रश्च चन्द्रसेनः प्रतापवान् |
जलसन्धः पितापुत्रौ सुदण्डो दण्ड एव च ||११||
पौण्ड्रको वासुदेवश्च भगदत्तश्च वीर्यवान् |
कलिङ्गस्ताम्रलिप्तश्च पत्तनाधिपतिस्तथा ||१२||
मद्रराजस्तथा शल्यः सहपुत्रो महारथः |
रुक्माङ्गदेन वीरेण तथा रुक्मरथेन च ||१३||
कौरव्यः सोमदत्तश्च पुत्राश्चास्य महारथाः |
समवेतास्त्रयः शूरा भूरिर्भूरिश्रवाः शलः ||१४||
सुदक्षिणश्च काम्बोजो दृढधन्वा च कौरवः |
बृहद्बलः सुषेणश्च शिबिरौशीनरस्तथा ||१५||
सङ्कर्षणो वासुदेवो रौक्मिणेयश्च वीर्यवान् |
साम्बश्च चारुदेष्णश्च सारणोऽथ गदस्तथा ||१६||
अक्रूरः सात्यकिश्चैव उद्धवश्च महाबलः |
कृतवर्मा च हार्दिक्यः पृथुर्विपृथुरेव च ||१७||
विडूरथश्च कङ्कश्च समीकः सारमेजयः |
वीरो वातपतिश्चैव झिल्ली पिण्डारकस्तथा ||१८||
उशीनरश्च विक्रान्तो वृष्णयस्ते प्रकीर्तिताः ||१८||
भगीरथो बृहत्क्षत्रः सैन्धवश्च जयद्रथः |
बृहद्रथो बाह्लिकश्च श्रुतायुश्च महारथः ||१९||
उलूकः कैतवो राजा चित्राङ्गदशुभाङ्गदौ |
वत्सराजश्च धृतिमान्कोसलाधिपतिस्तथा ||२०||
एते चान्ये च बहवो नानाजनपदेश्वराः |
त्वदर्थमागता भद्रे क्षत्रियाः प्रथिता भुवि ||२१||
एते वेत्स्यन्ति विक्रान्तास्त्वदर्थं लक्ष्यमुत्तमम् |
विध्येत य इमं लक्ष्यं वरयेथाः शुभेऽद्य तम् ||२२||
- महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 177, श्लोक 1-22
दुर्योधन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुष्प्रधर्षण, विवंशति, विकर्ण, सह, दुःशासन, युयुत्सु, वायुवेग, भीमवेगरव, उग्रायुध, बलाकी, करकायु, विरोचन, कुण्डक, चित्रसेन, सुवर्चा, कनकध्वज, नन्दक, बाहुशाली, तुहुण्ड, तथा विकट–धृतराष्ट्र के इन पुत्रों के अतिरिक्त और पुत्र भी कर्ण के साथ पधारे थे।
गान्धार राज सुबल के पुत्र शकुनि, वृषक, बृहद्बल। गान्धार राज के ये सभी पुत्र। अश्वत्थामा और भोज। राजा बृहन्त, मणिमान्, दण्डधार, सहदेव, जयत्सेन, राजा मेघसन्धि, अपने दोनों पुत्रों शङ्ख और उत्तर के साथ राजा विराट, वृद्धक्षेम के पुत्र सुशर्मा, राजा सेनाबिन्दु, सुकेतु और उनके पुत्र सुवर्चा, सुचित्र, सुकुमार, वृक, सत्यधृति, सूर्यध्वज, रोचमान, नील, चित्रायुद, अंशुमान्, चेकितान, महाबली श्रेणिमान्, समुद्रसेन के प्रतापी पुत्र चन्द्रसेन, जलसन्ध, विदण्ड और उनके पुत्र दण्ड, पौण्ड्रक वासुदाव, पराक्रमी भगदत्त, कलिङ्गनरेश, ताम्रलिप्त-नरेश, पाटन के राजा, अपने दो पुत्रों वीर रुक्माङ्गद तथा रुक्मरथ के साथ महारथी मद्रराज शल्य, कुरुवंशी सोमदत्त तथा उनके तीन महारथी शूरवीर पुत्र भूरि, भूरिश्रवा और शल, काम्बोजदेशीय सुदक्षिण , पुरुवंशी दृढ़धन्वा।
महाबली, सुषेण, उशीनरदेशीय शिबि तथा चोर-डाकुओं को मार डालनेवाले कारूषाधिपति भी यहाँ आये हैं। इधर संकर्षण, वासुदेव, (भगवान् श्रीकृष्ण) रुक्मिणीनन्दन पराक्रमी प्रद्युम्न, साम्ब, चारुदेष्ण, प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध, श्रीकृष्ण के बड़े भाई गद, अक्रूर, सात्यकि, परम बुद्धिमान् उद्धव, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, पृथु, विपृथु, विदूरथ, कङ्क, शङ्कु, गवेषण, आशावह, अनिरुद्ध, शमीक, सारिमेजय, वीर, वातपति, झिल्लीपिण्डारक तथा पराक्रमी उशीनर–ये सब वृष्णिवंशी कहे गये हैं।
भगीरथवंशी बृहत्क्षत्र, सिन्धुराज जयद्रथ, बृहद्रथ, बाह्लीक, महारथी श्रुतायु, उलूक, राजा कैतव, चित्राङ्गद, शुभाङ्गद, बुद्धिमान् वत्सराज, कोसलनरेश, पराक्रमी शिशुपाल तथा जरासन्ध–ये तथा और भी अनेक जनपदों के शासक भूमण्डल-में विख्यात बहुत-से क्षत्रिय वीर पधारे थे।
युधिष्ठिर के अभिषेक समारोह में सुदक्षिण काम्बोज आये थे
मयासुर इन्द्रप्रस्थ(Indraprastha) में सभाभवन के निर्माण के बाद युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए थे|सभाभवन के निर्माण के पश्चात जब धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ का निशचय किया तो अर्जुन को उतर दिशा के जनपदों को जीतने का कार्यभार सोंपा गया| उतर दिशा के अनेक देशों और जतियों को जीतने हे साथ अर्जुन द्वारा काम्बोजों और परमकाम्बोजों को जीतने का वर्णन भी महाभारत में मिलता है|
सब दिशाओं को जीतने के पश्चात युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया| सुदक्षिण राजा धर्मराज युधिष्ठिर के अभिषेक समारोह (अभिषेक) में उपस्थित थे| उसमें सुदक्षिण ने उपहार में कदली नामक मृग की खालों और सफेद काम्बोज घोड़ों के साथ एक रथ उन्हें प्रस्तुत किया था।
कदलीमृगमोकानि कृष्णश्यामारुणानि च|
काम्भोजः प्राहिणोत्तस्मै परार्ध्यानपि कम्बलान्|
गजयोषिद्गवाश्वस्य शतशोऽथ सहस्रशः||
- महाभारत, सभापर्व, अध्याय 49, श्लोक 17-19
काम्बोजराज सुदक्षिण ने काले, नीले और लाल रंग के कदली मृग के चर्म तथा अनेक बहुमूल्य कम्बल युधिष्ठिर के लिये भेंट में भेजे थे। उन्हीं की भेजी हुई सैकड़ों हथिनियाँ, सहस्रों गायें और घोड़े तथा तीस तीस हजार ऊँट और घोड़ियाँ वहाँ विचरती थीं। सभी राजा लोग भेंट लेकर युधिष्ठिर के भवन में एकत्र हुए थे। पृथ्वी! उस महान् यज्ञ में भूपालगण कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के लिये भाँति-भाँति के बहुत से रत्न लाये थे। बुद्धिमान पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के यज्ञ में धन की जैसी प्राप्ति हुई है, वैसी मैंने पहले कहीं न तो देखी हैं और न सुनी ही है।
एण्डाश्चैलान्वार्षदंशाञ्जातरूपपरिष्कृतान् |
प्रावाराजिनमुख्यांश्च काम्बोजः प्रददौ वसु ३|
अश्वांस्तित्तिरिकल्माषांस्त्रिशतं शुकनासिकान् |
उष्ट्रवामीस्त्रिशतं च पुष्टाः पीलुशमीङ्गुदैः ४|
- महाभारत, सभापर्व, अध्याय 51, श्लोक 3-4
काम्बोज नरेश सुदक्षिण ने भेड़ के ऊन, बिल में रहने वाले चूहे आदि के रोएँ तथा बिल्लियों की रोमावलियों से तैयार किये हुए सुवर्ण चित्रित बहुत से सुन्दर वस्त्र और मृगचर्म भेंट में दिये थे। तीतर पक्षी की भाँति चितकबरे और तोते के समान नाक वाले तीन सौ घोड़े दिये थे। इसके सिवा तीन तीन सौ ऊँटनियाँ और खच्चरियाँ भी दी थीं, जो पीलु, शमी और इंगुद खाकर मोटी ताजी हुई थीं।
बाह्लीको रथमाहार्षीज्जाम्बूनदपरिष्कृतम् |
सुदक्षिणस्तं युयुजे श्वेतैः काम्बोजजैर्हयैः ||५||
- महाभारत, सभापर्व, अध्याय 53, श्लोक 4
युधिष्ठिर को यज्ञ में विभिन्न राजाओं द्वारा दी हुई भेंटों के साथ, काम्बोज नरेश द्वारा दी गई भेंटों का वर्णन है। राजाओं ने दक्षिणा में देने के लिये जो गौएँ मँगवायी थीं, उन सबको मैंने जहाँ-तहाँ देखा। उनके दुग्धपात्र काँसे के थे। वे सबकी सब जंगलों में खुली चरने वाली थीं तथा उनकी संख्या कई हजार थी। भारत! राजा लोग युधिष्ठिर के अभिषेक के लिये स्वयं ही प्रयत्न करके शान्तचित्त हो सत्कारपूर्वक छोटे बड़े पात्र उठा उठाकर ले आये थे। बाह्लीक नरेश रथ ले आये, जो सुवर्ण से सजाया गया था। सुदक्षिण ने उस रथ में काम्बोज देश के सफेद घोड़े जोत दिये। महाबली सुनीथ ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस में अनुकर्ष (रथ के नीचे लगने योग्य काष्ठ) लगा दिया।
कौरव्यः सोमदत्तश्च पुत्राश्चास्य महारथाः |
समवेतास्त्रयः शूरा भूरिर्भूरिश्रवाः शलः ||१४||
सुदक्षिणश्च काम्बोजो दृढधन्वा च पौरवः |
बृहद्बलः सुषेणश्च शिबिरौशीनरस्तथा ||१५||
- महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 185, श्लोक 15
पांडवों और कौरवों द्वारा कम्बोजों को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास
पांचाल के राजा द्रुपद ने युधिष्ठिर को सलाह दी कि वे काम्बोज और अन्य पड़ोसी जनजातियों से उनकी सैन्य मदद लेने के लिये संदेशवाहक भेजें (एमबीएच 5.4.18), लेकिन ऐसा लगता है कि दुर्योधन ने पहले ही संदेशवाहक भेज कर पाडवों से यह मौका छीन लिया। युद्ध से पहले सुदक्षिण काम्बोज किसी भी पक्ष के लिए प्रतिबद्ध नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि वह दुर्योधन कुरु पक्ष से पूर्व निमंत्रण पर कौरवों में शामिल हो गए थे।
दुर्जया दन्तवक्रख रुकी च जनमेजयः|
श्राषाढी वायुवेगच्च पूर्वपाली च पार्थिवः|
भूरितेजा देवकञ्च एकलव्यः सहात्मजैः|
कारुषकाश्च राजान: चेमधूर्तिव बीर्यवान्|
काम्बोजा ऋषिका ये च पविमानूपकाद्य ये|
जयसनद्य काश्यञ्च तथा पञ्चनदा नृपाः|
- महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 4, श्लोक 18
द्रुपद ने कहा- महावाहो! तुम्हारा कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा ही होगा; क्योंकि दुर्योधन मधुर व्यवहार से राज्य नहीं देगा। अपने उस पुत्र के प्रति आसक्त रहने वाले धृतराष्ट्र भी उसी का अनुसरण करेंगे| भीष्म और द्रोणाचार्य दीनतावश तथा कर्ण और शकुनि मूर्खतावश दुर्योधन का साथ देंगे। बलदेव जी का कथन मेरी समझ में ठीक नहीं जान पड़ता। मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ, वही सुनीति की इच्छा रखने वाले पुरुष को सबसे पहले करना चाहिए। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से मधुर अथवा नम्रतापूर्ण वचन कहना किसी प्रकार उचित नहीं है। मेरा ऐसा मत है कि वह पापपूर्ण विचार रखनेवाला है, अतः मृदु व्यवहार से वश में आने वाला नहीं है।
जो पापात्मा दुर्योधन के प्रति मृदु वचन बोलेगा, वह मानो गदहे के प्रति कोमलतापूर्ण व्यवहार करेगा और गायों के प्रति कठोर बर्ताव। पापी एवं मूर्ख मनुष्य मृदु बचन बोलने वाले को शक्तिहीन समझता है और कोमलता का बर्ताव करने पर यह मानने लगता है कि मैंने इसके धन पर विजय पा ली। ( हम आपके सामने जो प्रस्ताव ला रहे है; ) इसी को सम्पन्न करेंगे और इसी के लिये यहाँ प्रयत्न किया जाना चाहिये। हमें अपने मित्रों के पास यह संदेश भेजना चाहिये कि वे हमारे लिये सैन्य संग्रह का उद्योग करें। भगवान! हमारे शीघ्रगामी दूत शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन और समस्त केकय राजकुमारों के पास जायँ। निश्चय हृी दुर्योधन भी सबके यहाँ संदेश भेजेगा। श्रेष्ठ राजा जब किसी के द्वारा पहले सहयता कि लिये निमन्त्रित हो जाते है; तब प्रथम निमन्त्रण देने वाले की ही सहायता करते हैं।अतः सभी राजाओं के पास पहले ही अपना निमन्त्रण पहुँच जाय; इसके लिए शीघ्रता करो। मैं समझता हूँ, हम सब लोगों को महान कार्य का भार वहन करना है।
राजा शल्य तथा उसके अनुगामी नेरेशों के पास शीघ्र दूत भेजे जायँ। पूर्व समुद्र के तटवर्ती राजा भगदत्त के पास भी दूत भेजना चाहिये। भगवन! इसी प्रकार अमितौजा, उग्र, हार्दिक्य (कृतवर्मा), अन्धक, दीर्घप्रज्ञ तथा शूरवीर रोचमान के पास भी दूतों को भेजना आवश्यक है। बृहन्त को भी बुलाया जाय। राजा सेनाबिन्दु , सेनजित, प्रतिविन्ध्य, चित्रवर्मा, सुवास्तुक, बाह्रीक, मुञ्ज्केश, चैद्यराज, सुपार्श्व, सुबाहु, महारथी पौरव, शकनरेश, पह्रवराज तथा दूरददेश के नरेश भी निमन्त्रित किये जाने चाहिये। सुरारि, नदीज, भूपाल कर्णवेष्ट, नील, वीरधर्मा , पराक्रमी भूमिपाल, दुर्जय दन्तवक्त्र, रुक्मी, जनमेजय, आषाढ, वायुवेग, राजा पूर्वपाली, भूरितेजा, देवक, पुत्रों सहित एकलव्य, करूष-देश के बहुत से नरेश, पराक्रमी क्षेमधूर्ति काम्बोजनरेश, ऋषिकदेश के राजा, पश्चिम द्वीपवासी नरेश, जयत्सेन, काश्य, पञ्चनद प्रदेश के राजा, दुर्धर्ष क्राथपुत्र, पर्वतीय नरेश, राजा जनक के पुत्र, सुशर्मा, मणिमान, योतिमत्सक, पाशुराज्य के अधिपति, पराक्रमी धृष्टकेतु, तुण्ड, दण्डधार, वीर्यशाली बृहत्सेन, अपराजित, निषादराज, श्रेणिमान, वासुमान, बृहद्वल, महौजा, शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले बाहु, पुत्रसहित पराक्रमी राजा समुद्रसेन, उद्भव, क्षेमक, राजा वाटधान, श्रुतायु, दृढ़ायु, पराक्रमी शाल्वपुत्र, कुमार तथा युद्धदुर्मद कलिंगराज- इन सब के पास शीघ्र ही रण-निमन्त्रण भेजा जाय; मुझे यही ठीक जान पड़ता है। मत्स्यराज! ये मेरे पुरोहित विद्वान् ब्राह्मण हैं, इन्हें धृतराष्ट्र के पास भेजिये और वहाँ के लिए उचित संदेश दीजिये। दुर्योधन से क्या कहना है? शान्तनुनन्दन भीष्म जी से किस प्रकार बातचीत करनी है? धृतराष्ट्र को क्या संदेश देना है? तथा रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य से किस प्रकार वार्तालाप करना है? यह सब उन्हें समझा दिजिये।
डॉ. पार्जिटर का मत है कि सुदक्षिण हालांकि किसी भी पक्ष के लिए प्रतिबद्ध नहीं था, सिंधु के राजा जयद्रथ के अनुनय करने पर कौरवों में शामिल हो गए थे (जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, 1906, पी. 320, पी. ई. पार्जिटर Journal of Royal Asiatic Society, 1906, p 320, P. E. Pargiter)।
परन्तु यह भी सम्भव है कि अर्जुन-दिग्विजय के समय अर्जुन से पराजित हुए कम्बोजों ने अपनी हार का बदला लेने के लिये दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया हो।
भीष्म ने सुदक्षिण की प्रशंसा की
महाभारत युद्ध में सुदक्षिण काम्बोज जब भीष्म के बुलावे पर हस्तिनापुर की तरफ से लड़ने आए उसका भीष्म द्वारा दुर्योधन को वर्णन। कुछ लोग समझते हैं कि सभी काम्बोज क्षत्रियों ने कौरवों का साथ दिया था परन्तु ऐसा नहीं है ६००० योद्धा परम-काम्बोज साम्राज्य से पाण्डवों की तरफ़ से भी लड़े थे। और उस समय दिए गए वचनों का पालन ही सर्वोपरि माना जाता था इसी वजह से भीष्म और मद्र राज शल्य जैसे पाण्डव हितैसियों को भी वचन पालन के लिये कौरव पक्ष से लड़ना पड़ा था ।
शकुनिः सौबलः शल्यः सैन्धवोऽथ जयद्रथः |
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्बोजश्च सुदक्षिणः ||३३||
श्रुतायुधश्च कालिङ्गो जयत्सेनश्च पार्थिवः |
बृहद्बलश्च कौशल्यः कृतवर्मा च सात्वतः ||३४||
दशैते पुरुषव्याघ्राः शूराः परिघबाहवः |
अक्षौहिणीनां पतयो यज्वानो भूरिदक्षिणाः ||३५||
- महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय 16, श्लोक 15-17
भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए सन्नद्ध दोनों पक्षों की सेनाओं में युद्धसम्बन्धी नियमों का निर्णय, संजय द्वारा धृतराष्ट्र को भूमि का महत्व बतलाते हुए जम्बूखण्ड के द्वीपों का वर्णन, शाकद्वीप तथा राहु, सूर्य और चन्द्रमा का प्रमाण, दोनों पक्षों की सेनाओं का आमने-सामने होना, अर्जुन के युद्ध-विषयक विषाद तथा व्याहमोह को दूर करने के लिए उन्हें उपदेश (श्रीमद्भगवद्गीता), उभय पक्ष के योद्धाओं में भीषण युद्ध तथा भीष्म के वध और शरशय्या पर लेटकर प्राणत्याग के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा करने आदि का निरूपण है। महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय- १६ , श्लोक -१५ में पुरुषसिंह शूरवीर क्षत्रिय काम्बोजराज सुदक्षिण का एक अक्षौहिणी सेना के अधिनायक के रूप में वर्णन । सुबलपुत्र शकुनि, शल्य, सिन्धुनरेश जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, केकयराजकुमार, काम्बोजराज सुदक्षिण, कलिंगराज श्रुतायुध, राजा जयत्सेन, कौशलनरेश बृहद्वल तथा भोजवंशी कृतवर्मा- ये दस पुरुषसिंह शूरवीर क्षत्रिय एक-एक अक्षौहिणी सेना के अधिनायक थे। इनकी भुजाएं परिधों के समान मोटी दिखायी देती थीं। इन सबने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे और उनमें प्रचुर दक्षिणाएँ दी थीं। ये तथा और भी बहुत से नीतिज्ञ महारथी राजा और राजकुमार दुर्योधन के वश में रहकर कवच आदि से सुसज्जित हो अपनी-अपनी सेनाओं में खडे़ दिखायी देते थे। इन सबने काले मृगचर्म बाँध रखे थे।
महाभारत युद्ध में सुदक्षिण काम्बोज
सुदक्षिण ने कुरुक्षेत्र युद्ध में मध्य एशिया के कम्बोज, साका और यवनों के वीर व क्रोधी योद्धाओं की पूरी डिवीजन (अक्षौहिणी) के साथ भाग लिया था। वह इस संयुक्त सेना के सर्वोच्च कमांडर थे जो शक्तिशाली हवाओं द्वारा स्थानांतरित किए गए बहुरंगी वर्षा वाले बादलों की तरह दिखते थे। कहा जाता है कि उनकी सेना के जनसमूह ने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्रों को टिड्डियों के झुंड (MBH 5.19.21-23) से आच्छादित किया था।
डॉ बी सी लॉ का कहना है कि सुदक्षिण कुरुक्षेत्र के मैदान में सभी महारथियों या महान नायकों में से एक थे और अपने कौशल और अपनी कम्बोज सेना के साथ, उन्होंने कुरुक्षेत्र में लंबे महाभारत युद्ध में कुरु पक्ष को एक महान सेवा प्रदान की (कुछ क्षत्रिय जनजाति, पृष्ठ 241)।
सुदक्षिण कोरवों के ग्यारह सेनापतियों में से एक थे
इस प्रकार बुद्धिमान दुर्योधन ने अपनी सेनाओं को व्यूहरचनापूर्वक संगठित किया था। कुरुक्षेत्र में ग्यारह और सात मिलकर अठारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हुई थी। (26) पाण्डवों की सेना केवल सात अक्षौहिणी थी और कौरवों के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हो गयी थीं। (27) पचपन पैदलों की एक टुकडी को पत्ति कहते हैं। तीन पत्तियाँ मिलकर एक सेनामुख कहलाती है। सेनामुख का ही दूसरा नाम गुल्म है। (28) तीन गुल्मों का एक गण होता है। दुर्योधन की सेनाओं में युद्ध करने वाले पैदल योद्धाओं के ऐसे-ऐसे गण दस हजार से भी अधिक थे। (29) उस समय वहाँ महाबाहु राजा दुर्योधन ने अच्छी तरह सोच-विचार कर बुद्धिमान एवं शूरवीर पुरुषों को सेनापति बनाया। (30) कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, मद्रराज शल्य, सिंधुराज जयद्रथ, कम्बोजराज सुदक्षिण, कृतवर्मा, कर्ण, भूरिश्रवा, सुबलपुत्र शकुनि तथा बाह्लीक उन सबको पृथक-पृथक एक-एक अक्षौहिणी सेना का नायक निश्चित करके विधिपूर्वक उनका अभिषेक किया।
तत्र दुर्योधनो राजा शूरान्बुद्धिमतो नरान् |
प्रसमीक्ष्य महाबाहुश्चक्रे सेनापतींस्तदा ||२६||
पृथगक्षौहिणीनां च प्रणेतॄन्नरसत्तमान् |
विधिपूर्वं समानीय पार्थिवानभ्यषेचयत् ||२७||
कृपं द्रोणं च शल्यं च सैन्धवं च महारथम् |
सुदक्षिणं च काम्बोजं कृतवर्माणमेव च ||२८||
द्रोणपुत्रं च कर्णं च भूरिश्रवसमेव च |
शकुनिं सौबलं चैव बाह्लीकं च महारथम् ||२९||
- महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 155, श्लोक 30-33
कृष्ण ने सुदक्षिण की प्रशंसा की
युद्ध की शुरुआत में, कृष्ण | वासुदेव ने सुदक्षिण कंबोज की गौरवान्वित किया और प्रशंसा की। कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र (MBH 5.95.19-21) में इकट्ठे हुए सबसे महान महारथियों में उन्हें सूचीबद्ध किया।
अर्जुन से युद्ध
जब युद्ध में अर्जुन द्वारा श्रुतायुध का वध कर दिया गया, तब काम्बोजराज का शूरवीर पुत्र सुदक्षिण वेगशाली अश्वों द्वारा शत्रुसूदन अर्जुन का सामना करने के लिये आया। अर्जुन ने उसके ऊपर सात बाण चलाये। वे बाण उस शूरवीर के शरीर को विदीर्ण करके धरती में समा गये। गाण्डीव धनुष द्वारा छोड़े हुए तीखे बाणों से अत्यन्त घायल होने पर सुदक्षिण ने उस रणक्षेत्र में कंक की पांख वाले दस बाणों द्वारा अर्जुन को क्षत-विक्षत कर दिया। श्रीकृष्ण को तीन बाणों से घायल करके उसने अर्जुन पर पुन: पांच बाणों का प्रहार किया। तब अर्जुन ने उसका धनुष काटकर उसकी ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इसके बाद पाण्डुकुमार अर्जुन ने दो अत्यन्त तीखे भल्लों से सुदक्षिण को बींध डाला। सुदक्षिण भी तीन बाणों से पार्थ को घायल करके सिंह के समान दहाड़ने लगा। शूरवीर सुदक्षिण ने कुपित होकर पूर्णत: लोहे की बनी हुई घण्टा युक्त भयंकर शक्ति गाण्डीवधारी अर्जुन पर चलायी। वह बड़ी भारी उल्का के समान प्रज्वलित होती और चिनगारियां बिखेरती हुई महारथी अर्जुन के पास जाकर उनके शरीर को विदीर्ण करके पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस शत्ति के द्वारा गहरी चोट खाकर महातेजस्वी अर्जुन मूर्च्छित हो गये। फिर धीरे-धीरे सचेत हो अपने मुख के दोनों कोनों को जीभ से चाटते हुए अचिन्त्य पराक्रमी पार्थ ने कंक के पांख वाले चौदह नाराचों द्वारा घोड़े, ध्वज, धनुष और सारथि सहित सुदक्षिण को घायल कर दिया।
सञ्जय उवाच||
ततः प्रविष्टे कौन्तेये सिन्धुराजजिघांसया |
द्रोणानीकं विनिर्भिद्य भोजानीकं च दुस्तरम् ||१||
काम्बोजस्य च दायादे हते राजन्सुदक्षिणे |
श्रुतायुधे च विक्रान्ते निहते सव्यसाचिना ||२||
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु विध्वस्तेषु समन्ततः |
प्रभग्नं स्वबलं दृष्ट्वा पुत्रस्ते द्रोणमभ्ययात् ||३||
त्वरन्नेकरथेनैव समेत्य द्रोणमब्रवीत् |
गतः स पुरुषव्याघ्रः प्रमथ्येमां महाचमूम् ||४||
- महाभारत, द्रोण पर्व, अध्याय 61, श्लोक 1-4
तेषां परपक्षाः काम्बॊजाः सुदक्षिण पुरःसराः।
ययुर अश्वैर महावेगैः शकाश च यवनैः सह।।
- महाभारत, द्रोण पर्व, अध्याय 7, श्लोक 14
भूतवर्मा क्षेमशर्मा करकर्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपदाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।।
गजाश्वरथपत्त्यौघास्तस्थुः शतसहस्रशः।
भूरिश्रवाः शलः शल्यः सोमदत्तश्च बाह्लिकः।।
अक्षौहिण्या वृता वीरा दक्षिणं पक्षमाश्रिताः।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्बोजश्च सुदक्षिणः।।
वामं पक्षं समाश्रित्य द्रोणपुत्राग्रगाः स्थिताः।।
- महाभारत, द्रोण पर्व, अध्याय 20, श्लोक 6-10
तत्र दुर्योधनो राजा शूरान्बुद्धिमतो नरान् |
प्रसमीक्ष्य महाबाहुश्चक्रे सेनापतींस्तदा ||२६||
पृथगक्षौहिणीनां च प्रणेतॄन्नरसत्तमान् |
विधिपूर्वं समानीय पार्थिवानभ्यषेचयत् ||२७||
कृपं द्रोणं च शल्यं च सैन्धवं च महारथम् |
सुदक्षिणं च काम्बोजं कृतवर्माणमेव च ||२८||
द्रोणपुत्रं च कर्णं च भूरिश्रवसमेव च |
शकुनिं सौबलं चैव बाह्लीकं च महारथम् ||२९||
- महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 155, श्लोक 30-33
भीष्म उवाच||
सुदक्षिणस्तु काम्बोजो रथ एकगुणो मतः |
तवार्थसिद्धिमाकाङ्क्षन्योत्स्यते समरे परैः ||१||
एतस्य रथसिंहस्य तवार्थे राजसत्तम |
पराक्रमं यथेन्द्रस्य द्रक्ष्यन्ति कुरवो युधि ||२||
एतस्य रथवंशो हि तिग्मवेगप्रहारिणाम् |
काम्बोजानां महाराज शलभानामिवायतिः ||३||
- महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 166, श्लोक 1-3
वीरगति
अर्जुन ने दूसरे बहुत-से बाणों द्वारा उसके रथ को टूक-टूक कर दिया और सुदक्षिण के संकल्प एवं पराक्रम को व्यर्थ करके पाण्डुपुत्र अर्जुन ने मोटी धार वाले बाण से उसकी छाती छेद डाली। इससे उसका कवच फट गया, सारे अंग शिथिल हो गये, मुकुट और बाजूबंद गिर गये तथा शूरवीर सुदक्षिण मशीन से फेंके गये ध्वज के समान मुंह के बल गिर पड़ा। जैसे सर्दी बीतने के बाद पर्वत के शिखर पर उत्पन्न हुआ सुन्दर शाखाओं से युक्त, सुप्रतिष्ठित एवं शोभा सम्पन्न कनेर का वृक्ष वायु के वेग से टूटकर गिर जाता है, उसी प्रकार काम्बोज देश के मुलायम बिछौनों पर शयन करने के योग्य सुदक्षिण वहाँ मारा जाकर पृथ्वी पर सो रहा था। बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित एवं शिखर युक्त पर्वत के समान सुदर्शनीय अरुण नेत्रों वाले काम्बोज राजकुमार सुदक्षिण को अर्जुन ने एक ही बाण से मार गिराया था। अपने मस्तक पर अग्नि के समान दमकते हुए सुवर्णमय हार को धारण किये महाबाहु सुदक्षिण यद्यपि प्राणशून्य करके पृथ्वी पर गिराया गया था, तथापि उस अवस्था में भी उसकी बड़ी शोभा हो रही थी।
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